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Monday, September 29, 2014

हरसिंगार के फ़ूल

मुझे 17 साल वापस जाना है 
अक्टूबर की ओस भरी सुबह में 
बरामदे में गिरे  हर सिंगार के फूल चुनने है 
कुछ  अम्मा की पूजा वाली डोलची में डालने  है 
कुछ मींज कर हाथ नारंगी करने है 
कुछ ज़मीन पर सजा कर अपना नाम लिखना है 
कुछ उसी पेड़ पर लगा रहने देना है 

की जब रात को हलकी सिहरन वाली हवा आये 
तो हरसिंगार की महक कमरे में भर जाए 
और आखिरी पहर  अगर नींद खुल जाए 
तो खिड़की से  फूलों की सफ़ेद ओस को गिरते देख 
अपने आप  फिर से नींद आ जाए 

मुझे 17 साल वापस जाना है 
हरसिंगार  के छोटे से पेड़ के पास 
उसने मेरा बचपन संभाल  कर रखा है 
कुछ हिस्सा उसका उधार लेकर 
वापस आना है 

मुझे 17 साल वापस जाना है 

- तृषांत 

30/9/ 14

Tuesday, November 12, 2013

तुम आना


तुम आना 
अगली बारिश के बाद 
मेरे  आँगन की गीली मिट्टी में अपने पाओं के निशान छोड़ जाना 

तुम आना 
अगले जाड़ों में 
मेरे कम्बल में अपनी महक छोड़ जाना 
तुम आना 

तुम आना 
अगले पतझड़ में , 
मेरे वीरान पेड़ों में , अपनी हँसी छोड़ जाना 
तुम आना 

तुम आना 
अगली गर्मियों में 
मेरी उदास शामों में , अपना गुलाबी रंग छोड़ जाना 

तुम्हारा चेहरा अब मेरी यादों में  धुंधला हो चला है 
तुम आना 
मेरी यादों में अपनी एक तस्वीर छोड़ जाना 
तुम आना

- त्रिशान्त
12/11/13

Saturday, October 26, 2013

अब याद नहीं कर पाता हूँ


हर शाम  उकसाती है 
हर रात याद दिलाती है 
हर सुबह समझाती है 
मैं जा जा कर फिर लौट आता हूँ 

वो खो गया है 
जो कभी था ही नहीं 
वो थम सा गया है 
जो कभी चला ही नहीं 
मैं ये सोच के कुछ सहम सा जाता हूँ
हर भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ

वो समय एक सपना था
ये हर बार खुद को समझाता हूँ
हर पत्थर को भगवान
अब मान नहीं पाता हूँ

जो बीत गए हैं दिन
अब याद नहीं कर पाता हूँ
तेरी महक को
अपनी हर कमीज़ से उड़ा हुआ पाता हूँ
अपनी यादों में भी 
तेरा चेहरा अब धुंधला पाता हूँ
अपने जीने में तेरी आदतें 
अब ख़त्म सा पाता हूँ 

बीती रातों के करवट भी 
अब महसूस नहीं कर पाता हूँ 
जब भी तुझे खोजने आता हूँ
अपनी यादों का एक हिस्सा
मरा हुआ पाता हूँ |

- त्रिशांत 

26/10/13

Thursday, March 14, 2013

रूमानी बारिश

कल रात अचानक से ठंडी हवा चलने लगी
यूँ मार्च के महीने में ऐसा होता तो नहीं है 
मैं उठ के बालकनी में गया 
मुझे लगा ऐसा नहीं हो सकता 
दूर सामने वाले घर में विंड चाइम 
कुछ ज्यादा ही छनक  रही थी 
मानो कह रही हो 
"की आस लगाने में  कोई बुराई  नहीं "
सामने वाला पेड़ भी चाइम और मेरे बीच  डोल रहा था 
जैसे समझा रहा हो की
" ये तो हवा ही है 
क्या पता कब रुख बदल दे" 
मुझे लगा ये क्या बचकानी बातें है 
और मैं वापस  कमरे में आ गया 
यूँ बैठा ही था अपनी कुर्सी में की 
दरवाज़े  की कड़ी मुझे आवाज़ देने लगी 
गुस्से से मैं उठा उसे बंद करने 
तो हँसते हुए कहने लगी 
"तुम्हे दरवाज़े बंद करने की इतनी जल्दी क्यों होती है 
कुछ दरवाज़े कभी, कुछ देर के लिए ही सही 
पर खोल भी दिया करो" 
मान ली मैंने उसकी ज़िद भी 
वापस आ खड़ा हुआ बाहर 
अटपटा सा लग रहा था सब कुछ 
देखा आसमान में जवाब के लिए 
तो कही से एक भटका बादल 
एक सोंधी बूँद माथे पे गिरा गया 
और मेरे  कुछ बोलने से पहले खुद ही कह गया 
" क्या तुम्हे ये  भी पता नहीं , 
रूमानी बारिशों की कोई 'वजह ' नहीं  " 


अब उम्मीद कहो या भ्रम 
मैं ज्यादा देर जागा नहीं , सो गया था 
सवेरे दफ्तर जो था 
फ़िर  भी दरवाज़ा खुला रख छोड़ा था 
क्या पता ये सब सच कह रहे हो 

पर तुम आई तो नहीं थी 
तुम आई थी क्या ?

त्रिशांत 
13/3/2013

Friday, March 8, 2013

होने और न होने का फ़र्क

पिता , कल मैं बहुत दिनों बाद घर गया
तुम्हे खोजा तुम्हारे कमरे में पर तुम कहीं नहीं मिले
अजीब लगा पर ये भी लगा की अच्छा है ग़र कुछ चीज़ों की आदत न ही पड़े 
ढूँढा तुम्हे bookshelf में , मिले वहां मार्क्स , मुक्तिबोध , महाश्वेता और मक्सिम गोर्की 
थे वे भी मायूस और हतप्रभ , कहा तुम उन्हें भी बिना बतलाये चले गए
दिखी वहीँ ashtray में पड़ी तुम्हारी उदास अधजली cigarette , बोला की ग़र हमेशा के लिए जा रहे थे तो मुझे अधूरा क्यूं छोड़ गए
समझाना चाहा इन्हें पर अलफ़ाज़ नहीं मिले , चला गया में वहां से
सीढियों से उतारते रूबरू हुई तुम्हारी अज़ीज़ राजा रवि वर्मा की युवतियां
पुछा उन थकी हुई औरतों से आप क्यों सोई नहीं है
कहा उन्होंने की " वो भी होने और न होने का फ़र्क समझ रही है , इसलिए उनकी आँखों में भी नींद नहीं है"
घुटन होने लगी मुझे अब , भागते हुए छत पर गया , मुरझाई money plant और अमलतास की बेलो को सांत्वना देने की कोशिश की
और सिकुड़ गयी मुझे देख कर , शायद जानती होंगी की मैं झूट बोल रहा हूँ
अपने ही चक्रव्यूह में फंसता जा रहा था , भागा फिर मैं नीचे , 
माँ की तस्वीर से पूछा " तुम तो सब जानती हो , क्यूं उदास हो , तुम तो पहले हंसती थी??",
माँ ने उदास फोटो में से बोला " हाँ हस्ती थी क्यूं की पहले तुम्हारे पिता के साथ इसी घर में बस्ती थी
और अजीब लगा, स्वीकार नहीं कर पा  रहा था अब भी ,
और नहीं रहा गया , तुरंत खोली तुम्हारी अलमारी ,
निकाला तुम्हारा पुराना स्वेअटर , भींच लिया कस के उसे
आ रही थी तुम्हारी cigarette और इतर से बनी सोंधी सोंधी गंध
मन करा पी लूँ इसे जितना पी सकता हूँ
क्या पता तुम्हारी तरह एक दिन ये भी बिना बताये उड़ जाये

त्रिशांत श्रीवास्तव
23 / 4 / 2011

Monday, March 4, 2013

सारे जहां से अच्छा


सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमाराहम आग सेकते है जब जले ये गुलिस्तां हमारा 

वो दिन भी हमने देखे जब रहता था दिल वतन में आज  आलम है ये  की वतन नहीं है फैशन में 

परबत वो सब से ऊंचा हमसाय आसमाँ काहर न्यू इअर और क्रिसमस पे गन्दगी  फैलाते हम  वहां पे 

गोदी मे खेलती है इसकी हजारो नदियाकाली सी , मटमैली सी , कारखानों की वो नालियां 

ए अब रौद गंगा वो दिन है याद तुझकोबस यादों में ही उन्हें  रखना , जो अब तेरे किनारे बनेगा  हाईवे हमारा 

मझहब नही सिखाता आपस मे बैर रखनाकुछ बैर को ही हमने बना लिया अब मज़हब ये  हमारा 
हँसते हैं हम अब जो कोई कहता की ,हिन्दवी है हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा 

युनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिल गये जहाँ सेभला हो अग्रेजों और उनकी अंग्रेजी का , की अब तक  है बाकी  नामो-निशान हमारा

कुछ बात है की हस्ती मिटती नही हमारीमायूस न हो अमरीका , नामुमकिन कुछ भी नहीं जब साथ हो तुम्हारा 

इक़्बाल है ये बड़ा  मरहम  की तुम नही हो इस जहाँ मेन समझ पाता   ये वतन  दर्द-ए-निहा तुम्हारा 

- त्रिशांत
04/03/2013

Tuesday, January 8, 2013

हमारी उस लड़ाई में

कुछ सूखे सपने छोड़ आया था तुम्हारी चौखट के बाहर 
सोचा की अगर उठा लोगी तो ये फिर से ताज़ा हो जायेंगे 

कुछ बातें छिपा दी थी तुम्हारे कपड़ो के बीच 
गर कभी तहें बनाओ , तो शायद  छिपी सी ये भी सुनाई दे जाये 

कुछ यादे रख आया था , उन तस्वीरों के साथ 
इस आशा से की  कभी उन्हें देखो , तो अनदेखी सी ये भी दिख जाये 

कुछ साल अपनी ज़िन्दगी के , तुम्हारी तकिये के नीचे सहेजे हैं 
ज़रा संभाल  के उन्हें उठाना , कही बेवजह उड़ न जाये 

कुछ मेरी वो ठहाको  वाली हंसी , तुम्हारे होटों पे छूट गयी है 
तुम उदास न होना ,गिरते आंसुओं के साथ कही ये भी बह न जाये 

कुछ अपनी वो साथ  गुजारी रातें , तुम्हारी चादरों में लिपटी रखी है 
उन्हें महफूज़ कहीं छिपा देना , कहीं बेमौसम  बरसातों  की सीलन में वो ख़राब न हो जाये 

कुछ उम्मीदें बिखर गयीं थी , हमारी उस लड़ाई में 
अगर मिलें 
तो  रख लेना , और 
मेरी जगह तुम्ही उन्हें जी लेना
मेरी जगह तुम्ही उन्हें जी लेना ।

- त्रिशांत