जितना मेरे कमरे की खिड़की से दिखता है
उतने में ही भर लेते है मेरे सपने अपनी उड़ान
क्या करूँगा मै फिलिस्तीन का आसमान ले के
उनका आसमान मेरे से ज्यादा नीला तो नहीं होता
मुझे उतना ही चाँद चाहिए जितना मेरी खिड़की पे सरक आता है
उसी से गीली हो जाती है मेरी यादों की ज़मीन
क्या करूँगा मै इरान का चाँद छीन के
अमावस तो वहां भी चौदह दिन की ही होती है
मुझे उतनी ही हवा चाहिए
जितनी मेरी खिड़की से आ जाती है
उमस में तपते माथे को ठंडा करने के लिए काफी होती है
क्या करूँगा मैं कश्मीर की हवा ले के
मेरे परिंदे उड़ने के लिए हवा नहीं
ख़ाली जगह चाहते हैं |
-- त्रिशांत
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