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Monday, June 18, 2012

मेरे हिस्से का आसमान



मुझे तो उतना ही आसमान चाहिए
जितना मेरे कमरे की खिड़की से दिखता है
उतने में ही भर लेते है मेरे सपने अपनी उड़ान
क्या करूँगा मै  फिलिस्तीन का आसमान ले के
उनका आसमान मेरे से ज्यादा नीला तो नहीं होता 

मुझे उतना ही चाँद चाहिए जितना मेरी खिड़की पे सरक आता है
उसी से गीली  हो जाती है मेरी यादों की ज़मीन 
क्या करूँगा मै इरान का चाँद छीन के 
अमावस तो वहां भी चौदह दिन की ही होती है 

मुझे उतनी ही हवा चाहिए 
जितनी मेरी खिड़की से आ जाती है
उमस में तपते माथे को ठंडा करने के लिए काफी होती है
क्या करूँगा मैं कश्मीर की हवा ले के
मेरे परिंदे उड़ने के लिए हवा नहीं 
ख़ाली जगह चाहते हैं |


-- त्रिशांत 

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