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Friday, March 8, 2013

होने और न होने का फ़र्क

पिता , कल मैं बहुत दिनों बाद घर गया
तुम्हे खोजा तुम्हारे कमरे में पर तुम कहीं नहीं मिले
अजीब लगा पर ये भी लगा की अच्छा है ग़र कुछ चीज़ों की आदत न ही पड़े 
ढूँढा तुम्हे bookshelf में , मिले वहां मार्क्स , मुक्तिबोध , महाश्वेता और मक्सिम गोर्की 
थे वे भी मायूस और हतप्रभ , कहा तुम उन्हें भी बिना बतलाये चले गए
दिखी वहीँ ashtray में पड़ी तुम्हारी उदास अधजली cigarette , बोला की ग़र हमेशा के लिए जा रहे थे तो मुझे अधूरा क्यूं छोड़ गए
समझाना चाहा इन्हें पर अलफ़ाज़ नहीं मिले , चला गया में वहां से
सीढियों से उतारते रूबरू हुई तुम्हारी अज़ीज़ राजा रवि वर्मा की युवतियां
पुछा उन थकी हुई औरतों से आप क्यों सोई नहीं है
कहा उन्होंने की " वो भी होने और न होने का फ़र्क समझ रही है , इसलिए उनकी आँखों में भी नींद नहीं है"
घुटन होने लगी मुझे अब , भागते हुए छत पर गया , मुरझाई money plant और अमलतास की बेलो को सांत्वना देने की कोशिश की
और सिकुड़ गयी मुझे देख कर , शायद जानती होंगी की मैं झूट बोल रहा हूँ
अपने ही चक्रव्यूह में फंसता जा रहा था , भागा फिर मैं नीचे , 
माँ की तस्वीर से पूछा " तुम तो सब जानती हो , क्यूं उदास हो , तुम तो पहले हंसती थी??",
माँ ने उदास फोटो में से बोला " हाँ हस्ती थी क्यूं की पहले तुम्हारे पिता के साथ इसी घर में बस्ती थी
और अजीब लगा, स्वीकार नहीं कर पा  रहा था अब भी ,
और नहीं रहा गया , तुरंत खोली तुम्हारी अलमारी ,
निकाला तुम्हारा पुराना स्वेअटर , भींच लिया कस के उसे
आ रही थी तुम्हारी cigarette और इतर से बनी सोंधी सोंधी गंध
मन करा पी लूँ इसे जितना पी सकता हूँ
क्या पता तुम्हारी तरह एक दिन ये भी बिना बताये उड़ जाये

त्रिशांत श्रीवास्तव
23 / 4 / 2011

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