हर शाम उकसाती है
हर रात याद दिलाती है
हर सुबह समझाती है
मैं जा जा कर फिर लौट आता हूँ
वो खो गया है
जो कभी था ही नहीं
वो थम सा गया है
जो कभी चला ही नहीं
मैं ये सोच के कुछ सहम सा जाता हूँ
हर भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ
वो समय एक सपना था
ये हर बार खुद को समझाता हूँ
हर पत्थर को भगवान
अब मान नहीं पाता हूँ
जो बीत गए हैं दिन
अब याद नहीं कर पाता हूँ
तेरी महक को
अपनी हर कमीज़ से उड़ा हुआ पाता हूँ
हर भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ
वो समय एक सपना था
ये हर बार खुद को समझाता हूँ
हर पत्थर को भगवान
अब मान नहीं पाता हूँ
जो बीत गए हैं दिन
अब याद नहीं कर पाता हूँ
तेरी महक को
अपनी हर कमीज़ से उड़ा हुआ पाता हूँ
अपनी यादों में भी
तेरा चेहरा अब धुंधला पाता हूँ
अपने जीने में तेरी आदतें
अब ख़त्म सा पाता हूँ
बीती रातों के करवट भी
अब महसूस नहीं कर पाता हूँ
जब भी तुझे खोजने आता हूँ
अपनी यादों का एक हिस्सा
मरा हुआ पाता हूँ |
- त्रिशांत
26/10/13
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