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Saturday, July 2, 2011

अब जो थोड़ी बहुत समझ आई है ज़िन्दगी

अब जो तुम नहीं हो, तो अच्छा लगने लगा है मुझे सडको पे अकेले चलना
भाता है मुझे भी बरसात की रातों में छज्जे से गिरती बूंदों को देखना
समझ में आने लगे हैं चेखोव , तोल्स्तोय और कीट्स
पढ़ लेता हूँ अब मैं  भी झुकी आँखों में अनकही बातें
जो की मिलता नहीं है पर तुम्हारी तरह मैं भी ढूँढने की कोशिश करता हूँ  संगीत से समस्याओं का अंत
पांच  की चीज़ को मोल भाव कर तीन में खरीदने का थोडा बहुत सुख मुझे भी मिलने लगा है
अब जब भी गुज़रता हूँ रेल की पटरियों से , तो सिक्का रख तुम्हे ही मांगता हूँ
स्वपन में यथार्थ देखना , और यथार्थ में स्वपन की कल्पना करना मैंने सीख लिया है
पर देखो, अब जो थोड़ी बहुत समझ आई है ज़िन्दगी
तो तुम नहीं हो..............

त्रिशांत

4 comments:

  1. Awwwiieee that's so beautiful...i could actually picture all that u've written...Sweet. Keep up the good work :))))

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  2. bahut hi achha likha hai... chhoo gaya hai dil ko.

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