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Thursday, March 14, 2013

रूमानी बारिश

कल रात अचानक से ठंडी हवा चलने लगी
यूँ मार्च के महीने में ऐसा होता तो नहीं है 
मैं उठ के बालकनी में गया 
मुझे लगा ऐसा नहीं हो सकता 
दूर सामने वाले घर में विंड चाइम 
कुछ ज्यादा ही छनक  रही थी 
मानो कह रही हो 
"की आस लगाने में  कोई बुराई  नहीं "
सामने वाला पेड़ भी चाइम और मेरे बीच  डोल रहा था 
जैसे समझा रहा हो की
" ये तो हवा ही है 
क्या पता कब रुख बदल दे" 
मुझे लगा ये क्या बचकानी बातें है 
और मैं वापस  कमरे में आ गया 
यूँ बैठा ही था अपनी कुर्सी में की 
दरवाज़े  की कड़ी मुझे आवाज़ देने लगी 
गुस्से से मैं उठा उसे बंद करने 
तो हँसते हुए कहने लगी 
"तुम्हे दरवाज़े बंद करने की इतनी जल्दी क्यों होती है 
कुछ दरवाज़े कभी, कुछ देर के लिए ही सही 
पर खोल भी दिया करो" 
मान ली मैंने उसकी ज़िद भी 
वापस आ खड़ा हुआ बाहर 
अटपटा सा लग रहा था सब कुछ 
देखा आसमान में जवाब के लिए 
तो कही से एक भटका बादल 
एक सोंधी बूँद माथे पे गिरा गया 
और मेरे  कुछ बोलने से पहले खुद ही कह गया 
" क्या तुम्हे ये  भी पता नहीं , 
रूमानी बारिशों की कोई 'वजह ' नहीं  " 


अब उम्मीद कहो या भ्रम 
मैं ज्यादा देर जागा नहीं , सो गया था 
सवेरे दफ्तर जो था 
फ़िर  भी दरवाज़ा खुला रख छोड़ा था 
क्या पता ये सब सच कह रहे हो 

पर तुम आई तो नहीं थी 
तुम आई थी क्या ?

त्रिशांत 
13/3/2013

Friday, March 8, 2013

होने और न होने का फ़र्क

पिता , कल मैं बहुत दिनों बाद घर गया
तुम्हे खोजा तुम्हारे कमरे में पर तुम कहीं नहीं मिले
अजीब लगा पर ये भी लगा की अच्छा है ग़र कुछ चीज़ों की आदत न ही पड़े 
ढूँढा तुम्हे bookshelf में , मिले वहां मार्क्स , मुक्तिबोध , महाश्वेता और मक्सिम गोर्की 
थे वे भी मायूस और हतप्रभ , कहा तुम उन्हें भी बिना बतलाये चले गए
दिखी वहीँ ashtray में पड़ी तुम्हारी उदास अधजली cigarette , बोला की ग़र हमेशा के लिए जा रहे थे तो मुझे अधूरा क्यूं छोड़ गए
समझाना चाहा इन्हें पर अलफ़ाज़ नहीं मिले , चला गया में वहां से
सीढियों से उतारते रूबरू हुई तुम्हारी अज़ीज़ राजा रवि वर्मा की युवतियां
पुछा उन थकी हुई औरतों से आप क्यों सोई नहीं है
कहा उन्होंने की " वो भी होने और न होने का फ़र्क समझ रही है , इसलिए उनकी आँखों में भी नींद नहीं है"
घुटन होने लगी मुझे अब , भागते हुए छत पर गया , मुरझाई money plant और अमलतास की बेलो को सांत्वना देने की कोशिश की
और सिकुड़ गयी मुझे देख कर , शायद जानती होंगी की मैं झूट बोल रहा हूँ
अपने ही चक्रव्यूह में फंसता जा रहा था , भागा फिर मैं नीचे , 
माँ की तस्वीर से पूछा " तुम तो सब जानती हो , क्यूं उदास हो , तुम तो पहले हंसती थी??",
माँ ने उदास फोटो में से बोला " हाँ हस्ती थी क्यूं की पहले तुम्हारे पिता के साथ इसी घर में बस्ती थी
और अजीब लगा, स्वीकार नहीं कर पा  रहा था अब भी ,
और नहीं रहा गया , तुरंत खोली तुम्हारी अलमारी ,
निकाला तुम्हारा पुराना स्वेअटर , भींच लिया कस के उसे
आ रही थी तुम्हारी cigarette और इतर से बनी सोंधी सोंधी गंध
मन करा पी लूँ इसे जितना पी सकता हूँ
क्या पता तुम्हारी तरह एक दिन ये भी बिना बताये उड़ जाये

त्रिशांत श्रीवास्तव
23 / 4 / 2011

Monday, March 4, 2013

सारे जहां से अच्छा


सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमाराहम आग सेकते है जब जले ये गुलिस्तां हमारा 

वो दिन भी हमने देखे जब रहता था दिल वतन में आज  आलम है ये  की वतन नहीं है फैशन में 

परबत वो सब से ऊंचा हमसाय आसमाँ काहर न्यू इअर और क्रिसमस पे गन्दगी  फैलाते हम  वहां पे 

गोदी मे खेलती है इसकी हजारो नदियाकाली सी , मटमैली सी , कारखानों की वो नालियां 

ए अब रौद गंगा वो दिन है याद तुझकोबस यादों में ही उन्हें  रखना , जो अब तेरे किनारे बनेगा  हाईवे हमारा 

मझहब नही सिखाता आपस मे बैर रखनाकुछ बैर को ही हमने बना लिया अब मज़हब ये  हमारा 
हँसते हैं हम अब जो कोई कहता की ,हिन्दवी है हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा 

युनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिल गये जहाँ सेभला हो अग्रेजों और उनकी अंग्रेजी का , की अब तक  है बाकी  नामो-निशान हमारा

कुछ बात है की हस्ती मिटती नही हमारीमायूस न हो अमरीका , नामुमकिन कुछ भी नहीं जब साथ हो तुम्हारा 

इक़्बाल है ये बड़ा  मरहम  की तुम नही हो इस जहाँ मेन समझ पाता   ये वतन  दर्द-ए-निहा तुम्हारा 

- त्रिशांत
04/03/2013