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Thursday, October 13, 2011

दो पैसे का ग़ालिब

तुम कहती थी मुझे दो पैसे का ग़ालिब
मैंने वाकई इसे मान लिया था
कुछ फूल तुम्हारे हमने भी संजोये थे किसी पुरानी किताब में
अनजाने में किसी ने उसे भी कबाड़ में बेच दिया था
तुम्हारी कही हर बात तो मानी थी
न जाने किसने कहा की मै अनसुना  कर गया था
हर बार जो तुम रूठ जाती थी
कम्बख्त वक़्त ने भी कब  मानाने   दिया था
जब पहुंचे तुम्हारी गली में छुपते छुपाते
हैरानी ने हमारी सब कुछ ज़ाहिर कर दिया था
और जब तुम आई कॉलेज में मिलने 
नजाने क्यों लगा तुम्हे की मैं  नाराज़  था ,मैं  सिर्फ झेंप  गया था
तुम सच कहती थी की मुझसे कुछ नहीं होगा
पर तुमसे पहले कुछ करने की कोशिश ही कहाँ किया था
चूक तुमसे नहीं मुझसे ही हुई थी
तुमने कहा " रुको, मत जाओ " और मैंने इसे " रुको मत , जाओ " समझ लिया था
तुम्हारी आस्था पे कभी मैंने  श़क नहीं किया
पर साले  भगवान्  ने ही धोखा दे दिया था

त्रिशांत श्रीवास्तव

4 comments:

  1. Wah! Kya khoob likha hai. Keep up the good work :)

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  2. are wah kya baat hai... mere do paise ke ghalib ki..... :D par tumhein iss naam se kaun bulata hai... isspar to roshni dalo... coz it is a brilliant name ;D

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