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Thursday, October 13, 2011

दो पैसे का ग़ालिब

तुम कहती थी मुझे दो पैसे का ग़ालिब
मैंने वाकई इसे मान लिया था
कुछ फूल तुम्हारे हमने भी संजोये थे किसी पुरानी किताब में
अनजाने में किसी ने उसे भी कबाड़ में बेच दिया था
तुम्हारी कही हर बात तो मानी थी
न जाने किसने कहा की मै अनसुना  कर गया था
हर बार जो तुम रूठ जाती थी
कम्बख्त वक़्त ने भी कब  मानाने   दिया था
जब पहुंचे तुम्हारी गली में छुपते छुपाते
हैरानी ने हमारी सब कुछ ज़ाहिर कर दिया था
और जब तुम आई कॉलेज में मिलने 
नजाने क्यों लगा तुम्हे की मैं  नाराज़  था ,मैं  सिर्फ झेंप  गया था
तुम सच कहती थी की मुझसे कुछ नहीं होगा
पर तुमसे पहले कुछ करने की कोशिश ही कहाँ किया था
चूक तुमसे नहीं मुझसे ही हुई थी
तुमने कहा " रुको, मत जाओ " और मैंने इसे " रुको मत , जाओ " समझ लिया था
तुम्हारी आस्था पे कभी मैंने  श़क नहीं किया
पर साले  भगवान्  ने ही धोखा दे दिया था

त्रिशांत श्रीवास्तव

Sunday, October 2, 2011

तब और अब ............

वो रोज़ उसका उसी बेंच पे इंतज़ार करता था
वो रोज़ देर से ही सही पर आ ही जाया करती थी
वो सोचता था की शाम नहीं ढलेगी
वो फिर ज़ोर से  हंसती थी उसकी सोच पर
वो मुह फेर के कहता था की शाम के ढलने के बाद जाना
वो चिढाते  हुए कहती थी की फिर भी वो चली जाएगी
वो समझाता था की चाँद में कुछ भी सुन्दर नहीं है
वो खीज के कहती थी , की चाँद इतनी पास से देखने की चीज़ नहीं है
वो हँसता था कभी कभी उसके ज्ञान पर
वो चौंकती थी उसके अनुमान पर
वो उसकी हथेली पे अपनी उंगलियों से कुछ कुछ लिखता रहता था
वो धीमे अपना सर उसके कंधे पे टिका दिया करती थी
वो किसी और दिशा में देखते हुए कोई धुन गुनगुनाता था
वो उससे भी कोई गीत बना दिया करती थी
वो रोज़ उसके इंतज़ार में कुछ अलफ़ाज़ सजाता था
वो आते ही उन्हें बिखरा दिया करती थी
वो समेटता उसके जाने के बाद उस की बातें
वो अपने दुपट्टे में उसके स्पर्श को छिपा लिया करती थी
वो चला फिर आया फिर  शहर काम खोजने के लिए
वो वहीँ रह गयी स्कूल में बच्चों को पढ़ने के लिए
वो तब भी  मिलते थे कभी कभी  एक दुसरे से ख़यालों में
वो दुहराते थे वही शामें और रातें


पर अब  अधमने से वो रोज़ मिलते हैं
क्यूंकि अब  मुआ ये  facebook आ गया
और सारा रोमांस एक बार में ही खा गया .

त्रिशांत श्रीवास्तव

Saturday, October 1, 2011

सहेज कर मत रखो


  सहेज कर रखी हुई चीज़ें
   कभी नहीं मिलती
    वक़्त पड़ने पर
    सहेजना व्यर्थ हो जाता है
 
    बिखरा रहने दो सामान
    तितर बितर रहने दो
    बेतरतीब

    तुम चुन सकते हो
    जब चाहे तब
    ज़रुरत पड़ने पर
    सब कुछ होता है
    क्यूँकी आँखों के सामने

    सहेज कर राखी चीज़ें
    अदृश्य रहती है
    आँखों से ओझल
    समय पर हमारे काम नहीं आती

     रह जाती हैं सिर्फ पुरातत्व की धरोहर
     बन कर