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Sunday, October 2, 2011

तब और अब ............

वो रोज़ उसका उसी बेंच पे इंतज़ार करता था
वो रोज़ देर से ही सही पर आ ही जाया करती थी
वो सोचता था की शाम नहीं ढलेगी
वो फिर ज़ोर से  हंसती थी उसकी सोच पर
वो मुह फेर के कहता था की शाम के ढलने के बाद जाना
वो चिढाते  हुए कहती थी की फिर भी वो चली जाएगी
वो समझाता था की चाँद में कुछ भी सुन्दर नहीं है
वो खीज के कहती थी , की चाँद इतनी पास से देखने की चीज़ नहीं है
वो हँसता था कभी कभी उसके ज्ञान पर
वो चौंकती थी उसके अनुमान पर
वो उसकी हथेली पे अपनी उंगलियों से कुछ कुछ लिखता रहता था
वो धीमे अपना सर उसके कंधे पे टिका दिया करती थी
वो किसी और दिशा में देखते हुए कोई धुन गुनगुनाता था
वो उससे भी कोई गीत बना दिया करती थी
वो रोज़ उसके इंतज़ार में कुछ अलफ़ाज़ सजाता था
वो आते ही उन्हें बिखरा दिया करती थी
वो समेटता उसके जाने के बाद उस की बातें
वो अपने दुपट्टे में उसके स्पर्श को छिपा लिया करती थी
वो चला फिर आया फिर  शहर काम खोजने के लिए
वो वहीँ रह गयी स्कूल में बच्चों को पढ़ने के लिए
वो तब भी  मिलते थे कभी कभी  एक दुसरे से ख़यालों में
वो दुहराते थे वही शामें और रातें


पर अब  अधमने से वो रोज़ मिलते हैं
क्यूंकि अब  मुआ ये  facebook आ गया
और सारा रोमांस एक बार में ही खा गया .

त्रिशांत श्रीवास्तव

2 comments:

  1. वो शब्द ही क्या जो आँखों में तस्वीर न खींच जायें...
    Very nostalgic and romantic...the end snatched it from sadness though!

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