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Monday, September 12, 2011

रात



 रात फिर आई कल और चुप चाप सिरहाने लेट गयी
मैंने कहा रात " जाओ मुझे सोना है "
रात हंसी और कहा -तुम कब रातों में सोते थे ?
मैं असमंजस में पड़ गया अब क्या बोलूं
मैंने कहा , रात तुम अकेले मत आया करो बड़ी डरावनी लगती हो

और ख़ास कर सावन में तो कभी भी नहीं
रात को शायद थोड़ा बुरा लगा और चुप हो गई
 वैसे रात ने कुछ गलत नहीं कहा था
अब मेरी नींद टूट चुकी थी , और रात  उम्मीद से मेरी तरफ ताक रही थी
मुझे पता था ये ऐसे नहीं मानेगी , और मैं मनाना भी न चाहता था
मैंने उससे पूछा  वो वक़्त याद है रात , जब हम  सब उस वीरान जंगल की सड़को पे फिरते थे
जब  हम ढाई बजे नुक्कड़ पे चाय पीते थे
वोह अक्टूबर का महिना होता  था ,  और तुम भी तो  जवान थी
तुम हंसती थी , मैं मुस्कुराता था , वो शर्माती थी , और मेरे दोस्त guitar पे गाते थे
हम सब एक बजे निकल जाते थे और चार से पहले कभी न आते थे
पूरे रास्ते नाटक की लाइनों को दोहराते थे
पूँजीवाद से ले कर भाई भतीजावाद , को विषय न बचता  था
तुम हर बार यही कहानी सुनना चाहती हो न ,
मैंने  फिर पूछा तुम्हे  ये सब कुछ  याद है रात ??
रात की नज़रे निचे हो गयी थी
मैंने कहा उदास मत हो रात , गलती तुम्हारी नहीं है
वो  समय भी तो कुछ और था
तुम भी कहाँ अकेली थी
तुम्हारे साथ भी तो वो अचानक से कंपकपाने वाली हवा आती थी
मेरे साथ वो दोस्त और खाली सड़के आती थी
वो बरगद का पेड़ की लकड़ियाँ और वो बेंच भी तो आती थी
शायद वो सब  एक सपना था रात , रात का सपना
और रात का सपना कब सच होता है
इस बार रात ज़ोर से  हंसी और बोली अब तुम समझदार हो गए हो
अब कभी न ओउंगी  तुम्हारे सिरहाने
अब न समझोगे तुम मुझे
फिर भले मैं बरसात के साथ आऊन या ओस के साथ
जा रही हूँ अब मैं , नींद आ जाये इसलिए बरगद के पीछे चाँद रख छोड़ा  है
मैं तो अब न आपाऊँगी  पर  गर मेरी याद आये तो तकिये के नीचे गोधुली भी  छिपा दी है
उसे देख लेना- मेरी और दिनों की परछाई दिख जाएगी
पर मैं तो अब न आउंगी !



त्रिशांत श्रीवास्तव