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Tuesday, January 8, 2013

हमारी उस लड़ाई में

कुछ सूखे सपने छोड़ आया था तुम्हारी चौखट के बाहर 
सोचा की अगर उठा लोगी तो ये फिर से ताज़ा हो जायेंगे 

कुछ बातें छिपा दी थी तुम्हारे कपड़ो के बीच 
गर कभी तहें बनाओ , तो शायद  छिपी सी ये भी सुनाई दे जाये 

कुछ यादे रख आया था , उन तस्वीरों के साथ 
इस आशा से की  कभी उन्हें देखो , तो अनदेखी सी ये भी दिख जाये 

कुछ साल अपनी ज़िन्दगी के , तुम्हारी तकिये के नीचे सहेजे हैं 
ज़रा संभाल  के उन्हें उठाना , कही बेवजह उड़ न जाये 

कुछ मेरी वो ठहाको  वाली हंसी , तुम्हारे होटों पे छूट गयी है 
तुम उदास न होना ,गिरते आंसुओं के साथ कही ये भी बह न जाये 

कुछ अपनी वो साथ  गुजारी रातें , तुम्हारी चादरों में लिपटी रखी है 
उन्हें महफूज़ कहीं छिपा देना , कहीं बेमौसम  बरसातों  की सीलन में वो ख़राब न हो जाये 

कुछ उम्मीदें बिखर गयीं थी , हमारी उस लड़ाई में 
अगर मिलें 
तो  रख लेना , और 
मेरी जगह तुम्ही उन्हें जी लेना
मेरी जगह तुम्ही उन्हें जी लेना ।

- त्रिशांत 


Monday, June 18, 2012

मेरे हिस्से का आसमान



मुझे तो उतना ही आसमान चाहिए
जितना मेरे कमरे की खिड़की से दिखता है
उतने में ही भर लेते है मेरे सपने अपनी उड़ान
क्या करूँगा मै  फिलिस्तीन का आसमान ले के
उनका आसमान मेरे से ज्यादा नीला तो नहीं होता 

मुझे उतना ही चाँद चाहिए जितना मेरी खिड़की पे सरक आता है
उसी से गीली  हो जाती है मेरी यादों की ज़मीन 
क्या करूँगा मै इरान का चाँद छीन के 
अमावस तो वहां भी चौदह दिन की ही होती है 

मुझे उतनी ही हवा चाहिए 
जितनी मेरी खिड़की से आ जाती है
उमस में तपते माथे को ठंडा करने के लिए काफी होती है
क्या करूँगा मैं कश्मीर की हवा ले के
मेरे परिंदे उड़ने के लिए हवा नहीं 
ख़ाली जगह चाहते हैं |


-- त्रिशांत 

Friday, June 15, 2012

शायद अच्छा है


मैं  आज  12   साल  का  हो  गया 
मेरा  कोई  नाम  नहीं  है 

पर  फिर  भी  सब  मुझे  'ऐ  लड़के ' कह  के  बुलाते  हैं 
शायद  यही  मेरा  नाम  है 

मेरा    बाप  भी  नहीं  है  
शायद  अच्छा  है 

बबलू  का  है  , वो  बबलू  को  रोज़  पीटता  है 
मेरी  एक  माँ  थी  , पर  पिछले  साल  जाड़े  में  मर  गयी 
शायद  अच्छा  है   ,
जब थी तो  हर  समय  रोती थी 
उसका  फटा  कम्बल  अब  मेरा  है  
रात  को  ओढ़  लेता  हूँ  , मच्हर  नहीं  काटते  

मै चौक  की  लाल  बत्ती  पर  रहता  हूँ 
मेरे  साथ  मेरे  जैसे  और  भी  है 
और  हम  सब  का  कोई  नाम  नहीं  है 
शायद  अच्छा  है  , 
इससे  हम  सब  एक  बराबर है  
ऐसा  फकीर  बाबा  कहते  है  , 
जब  मज़ार  ईद  पे  सजती  है  , 
तो  वो  भी  हमारे  साथ  रहते  हैं 

मुझे  अब  भूख भी  नहीं  लगती  , 
यूँ  आस  पास  के  घरों  से  रात  का  खाना आ जाता  है  , 
रोटी , पानी  , चावल  , सब्जी  , छिलके  , 
सब  एक  में  मिले  हुए  , 
सबको  हम  एक  साथ  ही  खा  जाते हैं   , 
यही  एक  स्वाद  पता  है  हमे  
शायद  अच्छा  है  , 
अगर  इनका  अलग अलग  स्वाद  पता  होता 
तो  ये  खा न  पाते  

कभी  कभार  कुछ एक  लोग  हमसे  मिलने  आ  जाते है  ,
विदेश  से  फोटो  खींचने  , 
उनको  नाक  बहाता   हुआ   छोटू  सब  से  भाता  है 
शायद  अच्छा  है  , 
फोटो  खींच  के  पांच  का  सिक्का  जो  फेक  जाते है ,

परसों  आंगनबाड़ी  से  दीदी  आई  थी  
हर  साल  एक  बार  आती  है 
आला लगा  कर  करती  है  जांच  
और  पुराने  कपड़े  दे  जाती  है 

इस  बार   मुझे तीन  बारी आला  लगाया  , गले  में  चम्मच  भी  डाली  
फिर  कापी  में  कुछ  लिखते  हुए  ngo वाले  भैया  से  बोली  

" ये जाड़ा काट लेगा , इसका  defence mechanism अच्छा  है  , 
इसे  एक  ही  स्वेटर देना  "

समझ  में  तो  नहीं  आया  , पर  अच्छा  ही  होगा  !

- त्रिशांत श्रीवास्तव 
15/6/2012
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Thursday, October 13, 2011

दो पैसे का ग़ालिब

तुम कहती थी मुझे दो पैसे का ग़ालिब
मैंने वाकई इसे मान लिया था
कुछ फूल तुम्हारे हमने भी संजोये थे किसी पुरानी किताब में
अनजाने में किसी ने उसे भी कबाड़ में बेच दिया था
तुम्हारी कही हर बात तो मानी थी
न जाने किसने कहा की मै अनसुना  कर गया था
हर बार जो तुम रूठ जाती थी
कम्बख्त वक़्त ने भी कब  मानाने   दिया था
जब पहुंचे तुम्हारी गली में छुपते छुपाते
हैरानी ने हमारी सब कुछ ज़ाहिर कर दिया था
और जब तुम आई कॉलेज में मिलने 
नजाने क्यों लगा तुम्हे की मैं  नाराज़  था ,मैं  सिर्फ झेंप  गया था
तुम सच कहती थी की मुझसे कुछ नहीं होगा
पर तुमसे पहले कुछ करने की कोशिश ही कहाँ किया था
चूक तुमसे नहीं मुझसे ही हुई थी
तुमने कहा " रुको, मत जाओ " और मैंने इसे " रुको मत , जाओ " समझ लिया था
तुम्हारी आस्था पे कभी मैंने  श़क नहीं किया
पर साले  भगवान्  ने ही धोखा दे दिया था

त्रिशांत श्रीवास्तव

Sunday, October 2, 2011

तब और अब ............

वो रोज़ उसका उसी बेंच पे इंतज़ार करता था
वो रोज़ देर से ही सही पर आ ही जाया करती थी
वो सोचता था की शाम नहीं ढलेगी
वो फिर ज़ोर से  हंसती थी उसकी सोच पर
वो मुह फेर के कहता था की शाम के ढलने के बाद जाना
वो चिढाते  हुए कहती थी की फिर भी वो चली जाएगी
वो समझाता था की चाँद में कुछ भी सुन्दर नहीं है
वो खीज के कहती थी , की चाँद इतनी पास से देखने की चीज़ नहीं है
वो हँसता था कभी कभी उसके ज्ञान पर
वो चौंकती थी उसके अनुमान पर
वो उसकी हथेली पे अपनी उंगलियों से कुछ कुछ लिखता रहता था
वो धीमे अपना सर उसके कंधे पे टिका दिया करती थी
वो किसी और दिशा में देखते हुए कोई धुन गुनगुनाता था
वो उससे भी कोई गीत बना दिया करती थी
वो रोज़ उसके इंतज़ार में कुछ अलफ़ाज़ सजाता था
वो आते ही उन्हें बिखरा दिया करती थी
वो समेटता उसके जाने के बाद उस की बातें
वो अपने दुपट्टे में उसके स्पर्श को छिपा लिया करती थी
वो चला फिर आया फिर  शहर काम खोजने के लिए
वो वहीँ रह गयी स्कूल में बच्चों को पढ़ने के लिए
वो तब भी  मिलते थे कभी कभी  एक दुसरे से ख़यालों में
वो दुहराते थे वही शामें और रातें


पर अब  अधमने से वो रोज़ मिलते हैं
क्यूंकि अब  मुआ ये  facebook आ गया
और सारा रोमांस एक बार में ही खा गया .

त्रिशांत श्रीवास्तव

Saturday, October 1, 2011

सहेज कर मत रखो


  सहेज कर रखी हुई चीज़ें
   कभी नहीं मिलती
    वक़्त पड़ने पर
    सहेजना व्यर्थ हो जाता है
 
    बिखरा रहने दो सामान
    तितर बितर रहने दो
    बेतरतीब

    तुम चुन सकते हो
    जब चाहे तब
    ज़रुरत पड़ने पर
    सब कुछ होता है
    क्यूँकी आँखों के सामने

    सहेज कर राखी चीज़ें
    अदृश्य रहती है
    आँखों से ओझल
    समय पर हमारे काम नहीं आती

     रह जाती हैं सिर्फ पुरातत्व की धरोहर
     बन कर

Monday, September 12, 2011

रात



 रात फिर आई कल और चुप चाप सिरहाने लेट गयी
मैंने कहा रात " जाओ मुझे सोना है "
रात हंसी और कहा -तुम कब रातों में सोते थे ?
मैं असमंजस में पड़ गया अब क्या बोलूं
मैंने कहा , रात तुम अकेले मत आया करो बड़ी डरावनी लगती हो

और ख़ास कर सावन में तो कभी भी नहीं
रात को शायद थोड़ा बुरा लगा और चुप हो गई
 वैसे रात ने कुछ गलत नहीं कहा था
अब मेरी नींद टूट चुकी थी , और रात  उम्मीद से मेरी तरफ ताक रही थी
मुझे पता था ये ऐसे नहीं मानेगी , और मैं मनाना भी न चाहता था
मैंने उससे पूछा  वो वक़्त याद है रात , जब हम  सब उस वीरान जंगल की सड़को पे फिरते थे
जब  हम ढाई बजे नुक्कड़ पे चाय पीते थे
वोह अक्टूबर का महिना होता  था ,  और तुम भी तो  जवान थी
तुम हंसती थी , मैं मुस्कुराता था , वो शर्माती थी , और मेरे दोस्त guitar पे गाते थे
हम सब एक बजे निकल जाते थे और चार से पहले कभी न आते थे
पूरे रास्ते नाटक की लाइनों को दोहराते थे
पूँजीवाद से ले कर भाई भतीजावाद , को विषय न बचता  था
तुम हर बार यही कहानी सुनना चाहती हो न ,
मैंने  फिर पूछा तुम्हे  ये सब कुछ  याद है रात ??
रात की नज़रे निचे हो गयी थी
मैंने कहा उदास मत हो रात , गलती तुम्हारी नहीं है
वो  समय भी तो कुछ और था
तुम भी कहाँ अकेली थी
तुम्हारे साथ भी तो वो अचानक से कंपकपाने वाली हवा आती थी
मेरे साथ वो दोस्त और खाली सड़के आती थी
वो बरगद का पेड़ की लकड़ियाँ और वो बेंच भी तो आती थी
शायद वो सब  एक सपना था रात , रात का सपना
और रात का सपना कब सच होता है
इस बार रात ज़ोर से  हंसी और बोली अब तुम समझदार हो गए हो
अब कभी न ओउंगी  तुम्हारे सिरहाने
अब न समझोगे तुम मुझे
फिर भले मैं बरसात के साथ आऊन या ओस के साथ
जा रही हूँ अब मैं , नींद आ जाये इसलिए बरगद के पीछे चाँद रख छोड़ा  है
मैं तो अब न आपाऊँगी  पर  गर मेरी याद आये तो तकिये के नीचे गोधुली भी  छिपा दी है
उसे देख लेना- मेरी और दिनों की परछाई दिख जाएगी
पर मैं तो अब न आउंगी !



त्रिशांत श्रीवास्तव